भारत में बेरोजगारी की समस्या एक नए संकट में तब्दील हो गई है। हाल ही में जारी सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (CMIE) की रिपोर्ट ने चौंकाने वाले आंकड़े प्रस्तुत किए हैं, जिससे देशभर में चिंता की लहर दौड़ गई है। रिपोर्ट के अनुसार, बेरोजगारी दर ने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं, जिससे आर्थिक स्थिरता और विकास पर गंभीर सवाल खड़े हो गए हैं। इस रिपोर्ट में कई महत्वपूर्ण पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है, जिनमें महिला और पुरुष बेरोजगारी दर, ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में बेरोजगारी की स्थिति, और ऐतिहासिक आंकड़े शामिल हैं। आइए, विस्तार से जानें कि इस रिपोर्ट में क्या-क्या खुलासे हुए हैं और इसका भारत की अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ सकता है।
भारत में बेरोजगारी दर नें तोड़े सारे रिकॉर्ड
सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (CMIE) के नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, जून 2024 में भारत की बेरोजगारी दर (The Unemployment Rate in India ) 9.2% थी, जो मई 2024 के 7% से अधिक है। CMIE के कंज्यूमर पिरामिड्स हाउसहोल्ड सर्वेक्षण से यह भी पता चला कि जून 2024 में महिला बेरोजगारी दर 18.5% थी, जो पिछले वर्ष के 15.1% से अधिक है। वहीं, पुरुषों की बेरोजगारी दर 7.8% थी, जो जून 2023 के 7.7% से थोड़ा अधिक है। इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि बेरोजगारी की समस्या महिलाओं के बीच अधिक गंभीर है।
भारत में ग्रामीण और शहरी बेरोजगारी दर
ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में बेरोजगारी दर भी महत्वपूर्ण अंतर दिखाती है। जून 2024 में ग्रामीण बेरोजगारी दर 9.3% थी, जो मई 2024 के 6.3% से बढ़ी है। वहीं, शहरी बेरोजगारी दर 8.6% से बढ़कर 8.9% हो गई है। यह अंतर दर्शाता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अवसरों की कमी शहरी क्षेत्रों की तुलना में अधिक है। श्रम भागीदारी दर (LPR) भी जून 2024 में 41.4% थी, जो मई 2024 के 40.8% और जून 2023 के 39.9% से अधिक है।
भारत में बेरोजगारी दर रिकॉर्ड (वर्षानुसार)
पिछले 10 वर्षों में भारत की बेरोजगारी दर में कई उतार-चढ़ाव देखे गए हैं। भारत में बेरोजगारी दर का अनुसरण करना महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे देश की आर्थिक स्थिति और रोजगार के मौके का संकेत मिलता है। निम्नलिखित हैं वर्षानुसार भारत में बेरोजगारी दर के आंकड़े:
भारत में बेरोजगारी दर की गणना कैसे की जाती है?
भारत की बेरोजगारी दर एक महत्वपूर्ण आर्थिक संकेतक है जो वर्तमान आर्थिक परिस्थितियों के आधार पर बदलती रहती है। आर्थिक मंदी के दौरान जब रोजगार के अवसर कम हो जाते हैं, तो बेरोजगारी बढ़ती है। इसके विपरीत, आर्थिक वृद्धि और समृद्धि के समय में जब रोजगार के अवसर अधिक होते हैं, तो बेरोजगारी दर घटती है। भारत में बेरोजगारी दर की गणना करने के लिए विभिन्न प्रक्रियाएं और तकनीकियां प्रयुक्त की जाती हैं। प्राथमिकता रखते हुए, इसकी गणना बेरोजगार व्यक्तियों की संख्या के आधार पर की जाती है, जो कि राष्ट्रीय नागरिक श्रम बल के एक प्रतिशत के रूप में परिभाषित होता है।
संख्यात्मक आंकड़ों को प्राप्त करने के लिए विभिन्न सामाजिक और आर्थिक सर्वेक्षणों का उपयोग किया जाता है, जिनमें सम्मिलित हैं CMIE (Center for Monitoring Indian Economy) और अन्य आर्थिक विश्लेषण एजेंसियां। इन आंकड़ों के माध्यम से, सरकार और नीति निर्माताओं को बेरोजगारी की स्थिति का सटीक और विस्तार से अध्ययन करने का मौका मिलता है, जिससे वे उपयुक्त नीतियों को अपना सकें और रोजगार सृजन में सक्रिय योगदान दे सकें। वर्तमान बेरोजगारी दर की गणना निम्नलिखित सूत्र से की जाती है:
बेरोजगारी दर = बेरोजगार व्यक्तियों की संख्या / नागरिक श्रम बल – OR – बेरोजगारी दर = बेरोजगार लोगों की संख्या / (नौकरी पाने वाले लोगों + बेरोजगार लोगों की संख्या)
भारत में बेरोजगारी दर को प्रभावित करने वाली प्रमुख आर्थिक घटनाएं
वैश्विक वित्तीय संकट (2008-2009):
2008-2009 का वैश्विक वित्तीय संकट एक आर्थिक भूचाल था जिसने पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्थाओं को हिला कर रख दिया। यह संकट अमेरिका में सबप्राइम मॉर्गेज मार्केट के पतन से शुरू हुआ, जिसने प्रमुख वित्तीय संस्थानों को दिवालिया होने की कगार पर ला दिया और वैश्विक वित्तीय प्रणाली को संकट में डाल दिया। इसका प्रभाव भारत पर भी पड़ा, जहां निर्यात में गिरावट, निवेश में कमी और आर्थिक गतिविधियों में मंदी देखी गई। इसके परिणामस्वरूप, कई क्षेत्रों में रोजगार के अवसर घट गए और बेरोजगारी दर बढ़ गई। भारतीय उद्योगों ने उत्पादन कम कर दिया और निवेशकों ने अपनी निवेश योजनाओं को टाल दिया, जिससे देश की आर्थिक वृद्धि पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा।
सरकार को आर्थिक स्थिरता बहाल करने के लिए विभिन्न वित्तीय प्रोत्साहन पैकेजों और नीतिगत सुधारों को लागू करना पड़ा, जिससे धीरे-धीरे अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने में मदद मिली। यह संकट एक महत्वपूर्ण अनुस्मारक था कि वैश्विक अर्थव्यवस्था कितनी परस्पर जुड़ी हुई है और कैसे एक देश का आर्थिक संकट वैश्विक स्तर पर प्रभाव डाल सकता है।2008 के वैश्विक वित्तीय संकट ने भारत की अर्थव्यवस्था को गंभीर रूप से प्रभावित किया, जिससे विभिन्न क्षेत्रों में रोजगार के अवसरों में कमी आई। इसका असर लंबे समय तक बना रहा और रोजगार की संभावनाएं सीमित हो गईं।
नोटबंदी (2016)- Demonetisation in India:
2016 की नोटबंदी भारत के आर्थिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना थी, जब 8 नवंबर 2016 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 500 और 1000 रुपये के उच्च मूल्य वाले मुद्रा नोटों को अवैध घोषित कर दिया। इस कदम का उद्देश्य काले धन, भ्रष्टाचार, जाली मुद्रा, और आतंकवाद को वित्तपोषित करने वाले स्रोतों पर अंकुश लगाना था। हालांकि, इसके तात्कालिक प्रभाव व्यापक और विविध थे। अचानक मुद्रा के प्रचलन से बाहर हो जाने के कारण, कई लोगों को अपनी दैनिक आवश्यकताओं को पूरा करने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। विशेष रूप से, अनौपचारिक क्षेत्र, जो नकदी पर निर्भर था, बुरी तरह प्रभावित हुआ और लाखों लोग बेरोजगार हो गए।
छोटे व्यापारियों और किसानों को भी गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ा, क्योंकि नकदी की कमी ने उनकी गतिविधियों को बाधित कर दिया। हालांकि, दीर्घकालिक दृष्टि से, नोटबंदी ने डिजिटल भुगतान और बैंकिंग प्रणाली में सुधार को प्रोत्साहित किया और अर्थव्यवस्था में पारदर्शिता बढ़ाने की दिशा में कदम बढ़ाया। यह कदम विवादित रहा, जिसमें इसके समर्थकों ने इसे साहसिक सुधार बताया, जबकि आलोचकों ने इसके क्रियान्वयन और इसके कारण हुई असुविधाओं पर सवाल उठाए।
जीएसटी कार्यान्वयन (2017)- GST Implementation in India
2017 में वस्तु और सेवा कर (जीएसटी) का कार्यान्वयन भारत की कराधान प्रणाली में एक ऐतिहासिक बदलाव था। 1 जुलाई 2017 को लागू किए गए इस कर सुधार का उद्देश्य देश में अप्रत्यक्ष करों की जटिलता को समाप्त करना और ‘एक राष्ट्र, एक कर’ की अवधारणा को साकार करना था। जीएसटी ने केंद्रीय और राज्य स्तर पर विभिन्न करों को एकीकृत कर दिया, जिससे व्यापार में पारदर्शिता और दक्षता बढ़ी। इसके लागू होने से पहले, व्यापारियों और निर्माताओं को कई करों का सामना करना पड़ता था, जिससे कर जटिलता और अनुपालन लागत बढ़ जाती थी।
हालांकि, जीएसटी के कार्यान्वयन के शुरुआती दिनों में व्यापारियों और व्यवसायों को अल्पकालिक व्यवधानों का सामना करना पड़ा। नई प्रणाली को समझने और अपनाने में समय लगा, और कई छोटे व्यवसायों को अपनी कार्यप्रणाली में बदलाव करना पड़ा। इसके बावजूद, जीएसटी ने दीर्घकालिक दृष्टि से भारत के व्यापारिक वातावरण को सरल और सुसंगत बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कर संग्रहण में वृद्धि, कर चोरी में कमी, और राज्यों के बीच राजस्व बंटवारे की प्रणाली में सुधार इसके प्रमुख लाभ थे। जीएसटी ने आर्थिक एकीकरण को प्रोत्साहित किया और एक एकीकृत बाजार के निर्माण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था, जिससे भारत की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाने में मदद मिली।
कोविड-19 महामारी (2020): Covid-19 in India
कोविड-19 महामारी ने 2020 में वैश्विक स्तर पर अभूतपूर्व संकट पैदा किया, जिसका असर भारत पर भी गहराई से पड़ा। यह महामारी, जो SARS-CoV-2 वायरस के कारण फैली, ने स्वास्थ्य संकट के साथ-साथ आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था को भी चुनौती दी। मार्च 2020 में, भारत सरकार ने वायरस के प्रसार को रोकने के लिए देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा की, जिससे आर्थिक गतिविधियों पर व्यापक प्रभाव पड़ा।
लॉकडाउन के कारण उद्योगों, व्यवसायों और सेवा क्षेत्रों में कामकाज ठप हो गया। लाखों लोग बेरोजगार हो गए, विशेषकर उन क्षेत्रों में जो अनौपचारिक और असंगठित थे। श्रमिकों का बड़े पैमाने पर पलायन हुआ, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में भी संकट उत्पन्न हो गया। शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा, और परिवहन जैसी बुनियादी सेवाएं बुरी तरह प्रभावित हुईं।
बेरोजगारी का देश की अर्थव्यवस्था पर प्रभाव
बेरोजगारी का किसी भी देश की अर्थव्यवस्था पर गहरा और व्यापक प्रभाव पड़ता है। उच्च बेरोजगारी दर आर्थिक प्रगति को बाधित करती है, क्योंकि यह उपभोक्ता खर्च में कमी लाती है, जिससे मांग में गिरावट आती है और उत्पादन में मंदी होती है। इसके परिणामस्वरूप, व्यवसाय अपने संचालन को कम करते हैं या बंद कर देते हैं, जिससे और भी अधिक बेरोजगारी उत्पन्न होती है ।
बेरोजगारी से सरकारी वित्तीय स्थिति पर भी दबाव पड़ता है। सरकार को बेरोजगार लोगों की सहायता के लिए बेरोजगारी लाभ, सब्सिडी और अन्य सामाजिक सुरक्षा उपायों पर अधिक खर्च करना पड़ता है, जबकि कर राजस्व में कमी होती है। इससे बजट घाटा बढ़ सकता है और विकास परियोजनाओं पर निवेश में कटौती हो सकती है।
लंबे समय तक बेरोजगारी रहने से सामाजिक अशांति और असंतोष भी बढ़ सकता है। यह अपराध दर, मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं, और समाज में असमानता को बढ़ा सकता है। युवाओं में बेरोजगारी विशेष रूप से खतरनाक होती है, क्योंकि यह एक पूरी पीढ़ी के लिए आर्थिक अवसरों और भविष्य की संभावनाओं को प्रभावित कर सकती है।
व्यक्तिगत स्तर पर, बेरोजगारी आत्म-सम्मान, मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाती है। बेरोजगार लोग आर्थिक रूप से असुरक्षित महसूस करते हैं, जिससे उनके जीवन की गुणवत्ता में गिरावट आती है। इस प्रकार, बेरोजगारी का प्रभाव केवल आर्थिक ही नहीं, बल्कि सामाजिक और व्यक्तिगत स्तर पर भी गहरा होता है।
भारतीय अर्थव्यवस्था में बेरोजगारी की दर में तेजी से वृद्धि दर्शाने वाली CMIE की रिपोर्ट ने देश के रोजगार संकट को और भी सामने लाया है। इस संकट के सामने निरंतर विश्लेषण और कठोर प्रबंधन की आवश्यकता है, ताकि हम समृद्धि की नई दिशा में अग्रसर हो सकें। नीति निर्माताओं के लिए बेरोजगारी को नियंत्रित करना और रोजगार सृजन को बढ़ावा देना अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह न केवल आर्थिक स्थिरता और विकास के लिए आवश्यक है, बल्कि सामाजिक सौहार्द और नागरिकों की भलाई के लिए भी आवश्यक है।